बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल का समर्थन करेगी। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव न सिर्फ यह फैसला कर चुके हैं, बल्कि अपनी पार्टी के नेताओं को इसका संदेश भी दे चुके हैं।
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ऐसे में कांग्रेस के साथ सपा के रिश्तों में दरार बढ़नी तय मानी जा रही है। क्योंकि, कांग्रेस पहले ही खुद को मजबूत करने के लिए बिहार में अपने दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है।
पहले दिल्ली और अब बिहार में सपा ने कांग्रेस का साथ छोड़कर दूसरे दल से समझौता किया है। इसके बाद सपा और कांग्रेस के बीच उत्तर प्रदेश में चल रहे गठबंधन पर भी अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं। विवाद बढ़ा, तो 2027 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं।
दरअसल, अखिलेश यादव का मानना है कि जो दल भाजपा को हराएगा, सपा उसका साथ देगी। इसी तर्ज पर सपा ने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी (AAP) का साथ दिया था। जबकि यूपी में सपा और कांग्रेस लोकसभा चुनाव मिलकर लड़े थे, भाजपा को हराया था। बिहार में सपा का जनाधार सीमित है। वहां उसकी संगठनात्मक ताकत भी नहीं है। तेजस्वी को समर्थन देकर सपा विपक्षी वोटों के बंटवारे को रोकना चाहती है, जिससे बीजेपी को चुनौती दी जा सके।
पहले जानिए सपा का बिहार में कैसा है जनाधार
इसलिए बढ़ सकती है कांग्रेस और सपा में दूरी बिहार चुनाव को लेकर कांग्रेस का रुख साफ नहीं है। ऐसे में अखिलेश यादव का यह फैसला कांग्रेस को नागवार गुजर सकता है। यूपी में 2 साल बाद विधानसभा के चुनाव हैं। सपा और कांग्रेस के बीच पहले से ही सीट-बंटवारे को लेकर तनाव रहा है।
कांग्रेस के नेता कई बार कह चुके हैं कि विधानसभा चुनाव में 17-63 का फॉर्मूला नहीं चलेगा। यहां उसे बराबर की हिस्सेदारी चाहिए होगी। सपा यूपी जैसे राज्य में कभी नहीं चाहेगी कि कांग्रेस को 60-70 से अधिक सीटें दी जाएं। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि इस फैसले के पीछे अखिलेश यादव की रणनीति क्या है?
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र कुमार कहते हैं- अखिलेश का विजन साफ है। वह खुद वोट कटुआ नहीं बनना चाहते। उनकी मंशा भाजपा के खिलाफ वोटों को एकजुट करने की है।
वैसे भी सपा की मुख्य ताकत उत्तर प्रदेश में है, इसलिए बिहार में सीमित संसाधन खर्च करने के बजाय वहां आरजेडी को समर्थन देकर वह अप्रत्यक्ष प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं। अखिलेश कांग्रेस को यह दिखाना भी चाहते हैं कि सपा उसके बिना भी विपक्षी गठबंधन में अपनी भूमिका तय कर सकती है।

उत्तर प्रदेश में सपा के हालिया रवैये से कांग्रेस पहले ही असहज थी। बिहार में यह कदम उनके लिए यह संदेश हो सकता है कि अखिलेश क्षेत्रीय दलों को प्राथमिकता दे रहे हैं। इससे कांग्रेस को लग सकता है कि उनकी राष्ट्रीय पार्टी की स्थिति कमजोर हो रही है।
पहले दिल्ली के चुनाव में अरविंद केजरीवाल का साथ देना और अब आरजेडी के समर्थन की बात करके अखिलेश यादव कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहे हैं। यह सिर्फ संदेश देने का खेल है कि यूपी से बिहार तक मुस्लिम-यादव (M-Y) वोटों में कोई बंटवारा नहीं है।

पॉलिटिकल एक्सपर्ट मानते हैं कि कुल मिलाकर अखिलेश का बिहार में आरजेडी को समर्थन सपा की सीमित ताकत को स्वीकार करते हुए विपक्षी एकता पर जोर देना ज्यादा नजर आ रहा है। यह कांग्रेस के साथ तनाव बढ़ा सकता है। खासकर, जब हाल के चुनावों में दोनों के बीच तालमेल कमजोर रहा है।
बिहार में सपा का इतिहास प्रभावहीन रहा है, इसलिए यह समर्थन प्रतीकात्मक रूप से ज्यादा मायने रखता है। आरजेडी और कांग्रेस का रुख सपा की स्थिति को और साफ करेगा।
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं- अखिलेश यादव का संदेश साफ है। वे इंडी गठबंधन को मजबूत करने के लिए खुद वोट कटवा नहीं बनना चाहते। जहां तक कांग्रेस से रिश्तों का सवाल है, तो यह बना रहेगा।
कांग्रेस का एक धड़ा यह जरूर चाहता है कि पार्टी अपने बूते पर चुनाव लड़े। ऐसे लोगों के बारे में खुद राहुल गांधी भी इशारा कर चुके हैं। ऐसे में राहुल गांधी कभी नहीं चाहेंगे कि बिहार में अलग लड़कर भाजपा का रास्ता आसान बनाया जाए।

आरजेडी-कांग्रेस साथ चुनाव लड़ती है, तो सपा पर क्या प्रभाव पड़ेगा? अगर ऐसा होता है तो इंडी गठबंधन के लिए यह सुकून भरा हो सकता है। सपा का आरजेडी को समर्थन विपक्षी गठबंधन को मजबूत करेगा। वहीं, अगर कांग्रेस आरजेडी से अलग होकर चुनाव लड़ती है तो इससे कांग्रेस और सपा के बीच तकरार बढ़ना तय माना जाएगा। मतलब, कांग्रेस के अलग लड़ने से सपा-कांग्रेस रिश्ते और खराब हो सकते हैं।
अब जानिए सपा और कांग्रेस नेता क्या कहते हैं? समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अमीक जामेई कहते हैं- सपा का मुकाबला भाजपा से है। जहां-जहां भाजपा को हराने वाला दल मजबूत होगा, सपा उसका साथ देगी। बिहार में तेजस्वी की आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी है। बिहार में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा। तेजस्वी को चाहिए कि वह कांग्रेस को साथ लेकर चलें।

वहीं, कांग्रेस का कहना है कि अभी तक दोनों दलों के शीर्ष नेताओं का गठबंधन के विरोध में कोई बयान सामने नहीं आया है।

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